संघर्ष की पहचान बने गुरुजी‚ झारखंड आंदोलन का एक युग उनके साथ समाप्त हुआ

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नेमरा के बीहड़ गाँव से निकलकर झारखंड की सत्ता के शिखर तक पहुँचे, जननेता, संघर्ष की मिसाल और अलग झारखंड राज्य आंदोलन के अग्रणी योद्धा — दिशोम गुरु शिबू सोरेन — अब हमारे बीच नहीं हैं।वे केवल एक नेता नहीं थे, वे झारखंड की आत्मा, झारखंडियों की आवाज़ थे।लोगों ने उन्हें श्रद्धा से गुरुजी कहा, और उनके संघर्ष ने उन्हें “दिशोम गुरु” की पहचान दी।झारखंड मुक्ति मोर्चा की पहचान तीर-धनुष थी — और उस तीर-धनुष के पीछे खड़े थे गुरुजी।
ए. के. राय, विनोद बिहारी महतो के बाद…अब शिबू सोरेन का जाना, झारखंड आंदोलन के एक युग का अंत है।उन्होंने और उनके साथियों ने बृहद झारखंड का सपना देखा था —लेकिन हमें जो झारखंड मिला, वह सिर्फ बिहार का टुकड़ा था।बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के वे इलाके —जहां झारखंडी संस्कृति और पहचान की जड़ें आज भी गहराई से जुड़ी हैं —वे आज भी उस सपने से अलग हैं।
उन क्षेत्रों के लोगों की कुर्बानी को इतिहास ने शायद भुला ही दिया।आज भी आधे से ज्यादा झारखंडीअपने ही प्रदेश से बाहर रोज़गार और जीवन की तलाश में पलायन को मजबूर हैं।और आज तक झारखंडियों की पहचान तय करने वालीकोई स्थानीय नीति, कोई नियोजन नीति नहीं बन पाई है।
गुरुजी अपने जीवन काल में अपने लोगों को कानूनी पहचान नहीं दिला सके। सत्ता तो मिली पर पूर्ण महुमत से नहीं जिस कारण उनका यह सपना अधूरापन रह गया।शिबू सोरेन का जाना, सिर्फ एक जीवन का अंत नहीं बल्कि एक आंदोलन, एक विचार और एक युग का विराम है।अब सवाल हम सबके सामने है क्या हम गुरुजी का अधूरा सपना पूरा करेंगे?या उसे उनके साथ इतिहास में दफना देंगे?